*** उर्मिला!!! तुम महान हो***
रामचरितमानस की नायिका
लक्ष्मण की तुम प्रेयसी
जनक की दुलारी पुत्री
मिथिला की तुम श्रेयसी!!
कब सोचा होगा तुमने
कि एकांतवास में जीना होगा
महल में रहकर भी
विष का घूँट पीना होगा l
लक्ष्मण ने फर्ज निभाया अपना
उठकर वनवास को चल दिए
सीते ने भी अधीरता दिखाई
और वन- वन भटकी वह!
कितनी सुखी रही होगी
वह पति के संग वन में भी
वन महल समान
और सुखी रोटी
पकवान सी लगती होगी l
लेकिन मेरा व्याकुल मन
अक्सर यह सोचता है-
चौदह वर्ष का महलवास
कैसे तुमने काटा होगा?
दिन – प्रतिदिन तुमने
कितने कष्ट उठाए होंगे
सपने भी देखे होंगे
लक्ष्मण के संग झूलों के
महल के कोने- कोने से
महक प्रिय की आती होगी l
सोचती हूँ, कैसे तुमने
तीज त्यौहार मनाया होंगे
नई साड़ियां, जेवर तुमने
किसको पहन दिखाए होंगे l
अपनी मीठी बोली से
किसको भला रिझाया होगा?
पूस की ठंडी रातें भी
सिहर- सिहर बिताई होंगी
जेठ की तपती दुपहरी में
याद लखन की आई होगी l
सावन की फुहारों भी
तुमको खूब रुलाया होगा
बारिश की रिमझिम में
सखियो ने तुम्हें
चिढ़lया होगा
मन का मीत
और मन का प्रीत
दोनों रहे विरक्ति पूर्ण
जीवन कैसे जीऊँ अपना
समझ नहीं आया होगा l
भगवन् भजन, लक्ष्मण सजन के
याद में बैन उचारे होंगे l
और लिखूँ क्या विरहा तेरा
कैसे दिवस विसारे होंगे l
राम मर्यादा पुरुषोत्तम हुए
लक्ष्मण को भ्रातृ प्रेम मिला
पतिप्रिया के रूप में
सीते का अभिषेक हुआ, लेकिन-
उर्मिला, तुमको क्या मिला?
दिल को जलाकर
मन को मसोस कर
जीवन संग कुछ भी निभाकर
बताओ! उर्मिला तुमको क्या मिला l
लेकिन! आज सहर्ष वचनों संग
राम चरितमानस में
एक नया अध्याय जोड़ती हूँ
तुम्हें लोगों के बीच में लाकर
मैं शब्दों से अभिषेक करती हूँ l
तुमने सही अर्थों में
विरक्ति का जीवन जिया है
चौदह वर्षों के महलवास में
दुख और जहर संग- संग पिया है, इसलिए
आज मेरी लेखनी लिखती है,
उर्मिला तुम महान हो!
महान हो!
त्याग की मिसाल हो!
ममता सिंह’ अमृत’
@ बंगलुरु