लंकेश्वर पड़े धरा पे, अभिमान सभी था नष्ट हुआ,
बल, बुद्धि निष्काम हुए, और अहंकार का मद टुटा,
लखन सुमित्रा के लाला को, नाग राज निज के भ्राता को,
आदेश हुआ रघुनन्दन का, जाओ प्रणाम करो रावण को,
सुनकर लखन निस्तेज हुए, सोचा मन में ना बोल सके,
उस कपटी के सम्मुख, मैं क्यूँ जाऊँ? कैसे ये आज्ञा ठुकराऊँ
आवेश में आ फिर बोल उठे, ना उबाल रक्त का रोक सके,
भैया क्यूँ कहते हो शत्रु से, तुम शिष्टाचार निभाने को?
क्या भूल गये ये हाथ वही जो बढ़ा रघु मान घटाने को,
युद्ध समाप्त हो चुका अनुज, है कर्मफल सबने पाया,
ये घायल मृत सब सैनिक है, सबने है धर्म निभाया,
मृत्यु शय्या पे लेटा रावण, सीख बड़ी दे जायेगा
ये अनमोल ज्ञान है प्रिय अनुज, जीवन का सार दे जाएगा,
भाई के आग्रह को ना लखन फिर टाल सकें,
छोटे क़दमों से भारी मन से रावण की और चले,
दृढ़ता से बोले हे राजन। मैं दशरथ नंदन आया हूँ,
ज्ञान जानने भेजा मुझको मैं रामचंद्र की छाया हूँ
रावण खर थे महाज्ञानी वो शिष्टाचार के पालक थे,
शिव शंकर के भक्त अनोखे, महामंत्र के साधक थे,
देख लखन को बिन बोले ही दृष्टि एक और घुमा बैठे,
जैसे कुछ भी सुना नहीं हो, मुख पे दम्भ दिखा बैठे,
उलटे पाँव लखन फिर लौटे, बोले भईया से लाभ नहीं,
अपने मद मैं चूर वो भैया, दिया उत्तर कोई मुझे नहीं,
क्रोध से चेहरा लाल शेष का, जिह्वा में जैसे गांठ पड़ी,
तिरस्कार खर से पाकर, धरा पाँव से खिसक रही,
रामचंद्र मुस्का के बोले, ज्ञान को तुम स्वीकार करो,
शिक्षर्थी बनकर जाओ, तुम शिष्य सा व्यवहार करो,
शेष तजो तुम अहंकार को, रावण को गुरू स्वीकार करो,
चरणों के समीप बैठ गुरू के, यथा सम्मान गुहार करो,
दंडवत कर रावण को लखन, चरणों के समीप जा बैठे,
बोले अभिलाषी हूँ प्रभु, मुझे देकर ज्ञान कृतार्थ करें ।
रावण ने फिर चुप्पी तोड़ी, वचन लखन से कहने लगे,
मैं अधर्मी क्या दे सकता, जीवन भर जिसने कपट किया,
सदकर्मो को टाला जिसने, अधर्म तभी के तभी किया,
आयु में अधिक, अनुभव भी बड़ा, जिसने मृत्यु को साधा है,
कैसे तुमने खर दुष्णो को भी एक सूत्र में बांधा है
हे राजन तनिक उपकार करो मुझमें राजनीती का ज्ञान भरो,
सुनो रघुनन्दन ध्यान धरो ये ब्रह्मण ज्ञान को कहता है
जो काज करे जनहित के, वही सच्चा राजा होता है,
ध्यान धरे जो, दया धर्म का, जहां परहित रहता है,
जग में सदा वो कार्य, निश्चित ही अच्छा होता है।
मानव प्रवृति है ऐसी जो सदकर्मो को स्थगित करे,
जो टाले पुण्य कर्म को, वो क्षति वही से शुरू करे,
मैंने दुष्कर्म किये अपार, ना मृत्यु उतार सकेगी भार,
ना जीवित कोई पुत्र बचा, ना बचे अर्थी के कांधे चार,
क्रोध, मोह, घमंड घृणा यही जनते दुष्कर्म हज़ार,
हो कुपित ज़ब शुर्पन्खा आयी निज भ्राता के द्वार,
उसी क्षण सीता को हरने का मन में आया मलिन विचार,
रोका खुद को ना संकोच किया, शीघ्र किया कुकर्म अपार,
हे रघुवंशी वो ही ज्ञानी, जो खुद पे संयम रखता है,
सब परामर्षों को सुनता जो, गलती पे शोधन करता है,
इतना ही कहना बस चाहता, और एक निवेदन तुम से है,
सदुपयोग करो वचनों का, सब पापों की तुमसे है क्षमा
तीन बार, श्रीराम का नाम, ले रावण ने प्राण तजे,
हाथ जोड़ कर, शीश झुका, रघुनाथ ज्ञान को नमन करे,
सत्य यही है जीवन में राजा बड़े ना धाम,
राम रसायन को पा जाए जिसे सदकर्मो का ज्ञान,
नवीन राणा (मिथांश)