श्री राम की शिव पूजा –
श्री राम ने –
वानर सेना के गठन का किया उपाय
‘कोड़ी करई ‘के समुद्र तट डाला पड़ाव,
नहीं संभव था यहाँ सागर पार जाना,
किया सर्वेक्षण जब उस स्थान का।
था असंभव वहां खाड़ी की लहरों के
उच्छृंखल उछाल पर पुल बनाना।
तब वानर -भालू सेना को एकत्रित किया
श्री राम ने सेना से विचार -विमर्श किया।
और निष्कर्ष की नीति निर्धारित कर
किया आगे बढ़ना तब तय तट सागर।
ढूंढ़ने लगे वह सागर किनारा
जो पार जाने को जानकी हेतु
उचित और उपयुक्त हो सेतु ।
तभी श्री राम ने वह स्थान पाया
जहां लहरों का उफान न आय।
पानी का बहाव बड़ा मद्धम था,
बहुत शांत -संयमित सागर था।
श्वेत और श्याम जल धाराओं का
दो भिन्न दिशाओं से बहकर आना,
बना था विभिन्न रंगों का रेखांकन।
महासागर का अगाध अगम संगम,
परस्पर मिलन बिंदु दिखता थल से ।
था अथाह समुद्र साधना लीन
ठिठकता, ठहरता मुग्ध तल्लीन
मग्न यहाँ रहा पुकार हो आनंद रत
हर रहा पथिक का मलिन स्वेद कण ।
लगा श्री राम को रमणीक स्थल,
डेरा डाल कर तब किया भ्रमण
और विभीषण से लिया परामर्श
की कुलगुरु सागर की आराधना
तीन दिन तट पर की पूजा -अर्चना
कि दें स्वयं ही पथ पार जाने का
किन्तु नहीं सुनाई देता किसी को
विनम्र और धीर राम का अनुनय
सच कहा -‘भय बिनु होइ न प्रीती।
तब किया प्रण राघव ने श्रम का
भारी क़दमों से खोजते जाते
पहुँचें द्वीप के अंतिम छोर
जो था धरती का छोटा ओर।
दूर -सुदूर था फैला अथाह जल
नहीं पाया कोई समाधान कल,
लिया धनुष -बाण हाथ में थाम,
तेज चौंध जो प्रकट हुई एकाएक,
दिवस मध्यान्ह की निपट दुपहर,
किनारों तक आता उतंग प्रवाह
खारा जल लौटता -छोड़ता हुआ,
सुझा गया राम को दिशा,
दिखा गया स्थल की दशा,
समझा गया कल्याण हेतु
एकमात्र उपाय निर्माण सेतु।
उथला था, छिछला था जहाँ जल ,
जिसके मध्य जगह -जगह थल,
उन आठ बिंदुओं को जोड़कर ,
उन टापुओं पर मार्ग मोड़कर,
करना है निर्मित तुम्हें राम,
एक आदि पुल पहुंचे मन्नार।
किन्तु कैसे ? है कठिन बड़ा
पार सेना सहित सागर जड़ा।
किन्तु क्या कोई दुर्गम कार्य
सोचा साधा नहीं जा सकता ?
यही तो असली परीक्षा है,
विपरीत स्थितियों में,
विकट परिस्थितियों में,
निर्णय बने नियति पट।
आया कुलगुरु ब्राह्मण वेश,
करवाया था अगम्य अहसास,
कि जड़ पंच तत्व -गगम समीर अनल जल धरनी
और चेतन पंच भूत – ढोल गंवार शूद्र पशु नारी,
है अब ये संरक्षण और संभाल के अधिकारी।
उनका अस्तित्व और इनका व्यक्तित्व
होगा कलियुग में दूषित -प्रदूषित।
अहा, अपने दुःख में भूल गया था,
राम अपना कर्तव्य और दायित्व,
जिनकी प्राथमिकता ध्येय है मेरा।
पुनः जगा भाव और भान जो
मानुष जीवन का अन्य ध्येय,
बढ़ों समष्टि से व्यष्टि ओर।
श्री राम चिंतित हैं –
मैं केवल एक साधारण मानव,
जिसे तय करना है अपना रव,
यहीं पर पुल बनवाना है।
असंभव को संभव बनाना है,
असत्य पर सत्य को जिताना है ,
नर से नारायण तक जाना है।
दिया जामवंत ने सन्देश
नील -नल करो सेतु तैयार,
और वानर -भालू करें खेल ,
लाये वृक्षों-पर्वतों को उखाड़,
करते गेंद जैसे खिलवाड़।
लिखते पाषाण पर राम नाम
तिरते जाते जलसतह पर वे
हुआ ‘धनुषकोड़ी ‘का निर्माण
बना ‘धनुष ‘आकृति समान।
स्मित से सोच रहे श्री राम-
बड़ा पावन और पवित्र स्थल ?
इसीलिए करता हूँ संकल्प यहीं
स्थापना हो शिव विग्रह की मही।
महृषि अगस्तय ने महादेव को
जो दिया था नाम मन्त्र –
ॐ कहो या राम,
प्रणव हो या औंकार,
यही सृष्टि में शाश्वत है,
जो नहीं है, है शून्य वही,
जिससे उत्पन्न है ब्रह्माण्ड
है फिर विलीन उसी शून्य में,
प्रकृति चक्र का यह विधान।
‘र ‘अग्नि का बीज है,
‘अ ‘ कार सूर्य का बीज है,
‘म ‘कार चंद्र का बीज है।
जो शून्य से उठता,
और शून्य में मिटता।
जो चारों ओर है व्याप्त
उससे शून्य हो कैसे दूर ?
विशाल अनंत ब्रह्म से
सूक्षम स्तर जीव में
है केवल विधमान
सर्वव्यापी सदाशिव।
तो शून्य से नहीं विलग
शिव और राम नहीं अलग
उपास्य -उपासक है दोनों का भाव
है एक -दूसरे में ‘परस्पर देवोभव। ‘
तब किया राम ने बालुकणों से
अपने हाथों स्वयंभू निर्माण।
शिवांश रामभक्त हनुमान
बुलायें ऋषि -मुनि अनेक
करों मंत्रोच्चारण यहाँ
करें शिवलिंग अभिषेक।
किया नामकरण तब उस स्थान,
हुआ ‘रामेश्वरम’ प्राण प्रतिष्ठान।
राम के ईश्वर हैं शिव
और शिव के जो हैं ईष्ट।
हाँ ‘रामेश्वर ‘ही धाम
रहेगा उचित यह नाम,
नाम है निर्गुण निराकार
जपते हैं जिसे सब साकार।
हुए प्रसन्न आशुतोष,
दिया श्री राम को आशीर्वाद
होगी तुम्हारी ही जय
होगी तुम्हारी विजय।
धर्म की जिस राह पर बढे हो,
अधर्म ही है हार का कारण।
कर करम से सिद्ध साकार
हो विष्णु का सगुण अवतार।
श्री राम नाम का सतत जाप
करता भस्म नित्य जीव पाप।
किया राम ने आराध्य से अनुरोध ,
करो इस ज्योतिर्लिंग में सदा वास,
धरा पर जिससे हो जनकल्याण।
लिया भोले बाबा ने सहर्ष स्वीकार,
बना चरण चिन्ह ‘रामेश्वर’ सदाकाल।
संतोष बंसल