जब अयोध्या झिलमिलायी दियो से झिलमिल तारों सी,
उर्मिला के अचेत मन को मिल गयी संजीवनी।
मन के सूने गाँव में दिए हज़ारो जल गए,
बिरहा की होली जली और यूँ दिवाली हो गयी।
एक तरफ तड़पे है केकई बावरी से घूमती,
एक तरफ है मंथरा निरभाग खुद को कोसती,
अपने अपने हिस्से के संताप सबने सह लिए,
बिरहा की होली जली और यूँ दिवाली हो गयी।
अवध के हर एक घर में छटपटाते हैँ भरत,
अपनी कमियाँ ढूंढते, खड़ाऊ राम के चूमते,
अभिकलन ये कौन दे की कितनी रातें जग लिए,
बिरहा की होली जली और यूँ दिवाली हो गयी।
कौशल्या माँ जो शैल सी बनके है बैठी बरसो से,
ममता लुटाने बह चली, आँखे है रोती अरसे से,
सोचती है सुकुमार कैसे वन के कष्ट सह गए,
बिरहा की होली जली और यूँ दिवाली हो गयी।
जब अयोध्या………