स्वर्णिम मृग को देख सिया ने,
कहा राम से जाओ नाथ।
करो शीघ्र आखेट हिरण का,
लाओ इसको अपने साथ।
मन तो नहीं था चल दीन्हे पर,
चाह सिया की पूरी करने।
प्राणप्रिया के सुख की खातिर,
राम लगे लंबे डग भरने।
नाथ नहीं जब लौट के आए,
समय बहुत जब बीता।
लक्ष्मण-रेखा खींच लखन भी,
चले छोड़कर सीता।
तभी दशानन पंचवटी में,
साधु का धर आया भेष।
लगा मांगने सिया से भिक्षा,
भिक्षुक का कर धारण वेश।
देखी लक्ष्मण-रेखा ज्योंही,
माथ भिक्षु का चकराया।
कपटी साधु ज्ञानी था सब,
जल्द समझ उसको आया।
ज्यों ही रेखा पार करी,
सीता ने बाहर रखे चरण।
त्यों ही उस साधु ने छल से,
सीता का कर लिया हरण।
मौलिक एवं स्वरचित
–विनय बंसल, आगरा
मोबाइल 9458060262