मर्यादापुरुषोत्तम श्री राम”
राम तुम्हारे अंतर्मन में
कितना अंतर्द्वंद मचा था
जब कैकयी माता ने खुद ही
त्रासदियों का व्यूह रचा था
अद्भुत पीड़ा दबी हुई थी
तेरे कोमल कोमल श्यामल तन में
निर्विकार वाणी थी मुखरित
पर कितनी दुविधा थी मन में
मुँह से फिर भी प्रेम वाक्य ही
सदा मधुर तुमने बोले थे
मानव होकर अति मानव के राज
नहीं तुमने खोले थे
इसीलिये कष्टों से नाता
जोड़ लिया था सबसे तोड़ा
गम को गले लगाकर सुह्रद
भ्रातृप्रेम को कभी ना छोड़ा
कैसी अजब प्रभा थी तन में
समा रही थी राजभवन में
माता का आदेश मिला तो
उलझी जाकर कंटक वन में
पलभर में आभूषण त्यागे
पहना सन्यासी चोला था
राम काम थे अद्भुत सारे
मुख मंडल कितना भोला था
तुम प्रेमी थे दुविधाओं के
फिर भी मुस्काते थे हरदम
सबके मन पर राज किया था
झेले पथ के सभी विकट गम
समझ ना पाया कोई रहस्य को
तुमने युग को बदल दिया
पौरुष का परचम फहरा कर
अहंकार को कुचल दिया
राजसी-वैभव,युवा उमंगे
प्रभु से भागीं कोसों दूर
पावन पग धरती पर रखकर
कर्म किये जग में भरपूर
मर्यादा की सीमाओं का
ध्यान रखा धीरज धरकर
आदर्शों का पाठ पढ़ाया
दुनिया को आगे बढ़कर
अंजु सिंह लता गहलोत