राम तुम्हारी सतत खोज है
वेदना के विशाल व्योम में राम तुम्हारी सतत खोज है।
हम शापित हैं दशरथ जैसे
कैकेयी हुईं हैं इच्छाएँ
वनवास सरीखा है जीवन
हैं भरत प्रतीक्षा सी आशाएँ
मृग मारीचिका के विलोम में
राम तुम्हारी सतत खोज है।
प्रणय प्रताड़ित हुआ सदा ही
सूपर्णखा का भाग्य लिए
हुआ जटायु मन का पाखी
प्रेम प्रदीप्त वैराग्य लिए
जो ग्राह्य नहीं है उसी सोम में
राम तुम्हारी सतत खोज है।
ह्रदय तिमिर हुआ है रावण
सूर्य विभीषण हुआ नहीं
मूर्छित लक्ष्मण से प्रयास हैं
संजीवनी पर्वत मिला नहीं
अंगद निश्चय के होम में
राम तुम्हारी सतत खोज है।
भाव समर्पण मिला नहीं
शबरी की जूठन जैसा
व्यथा सहन करता मेरी
था नहीं कोई शत्रुघ्न ऐसा
किंतु विश्वास के रोम रोम में
राम तुम्हारी सतत खोज है।
है परीक्षा नियति की फिर से
सीता सी आहुति देनी है
मर्यादा की पृष्ठभूमि पर
समय की स्तुति करनी है
अब सृष्टि के अविरल ओम में
राम तुम्हारी सतत खोज है।
~आलोक अविरल