मुक्तक

मुक्तक


जलो, जल सको दीप बनकर वहाँ।
अंधेरा हो फैला धरा पर जहाँ।
बनो बेसहारों की बैसाखियाँ –
जियो ,हो सके राम बनकर यहाँ।

 


छोड़ फूलों के गलीचे शूल पर चलना पड़ा।
दर्द में भी मुस्कुराकर दर्द को छलना पड़ा।
था नहीं आसान कहलाना स्वयं को राम यूँ –
कष्ट के साँचों में था प्रभु राम को ढलना पड़ा


दुल्हन सी है सजी अयोध्या,घर- घर छाई खुशहाली।
दीप जलाओ,मंगल गाओ, और मनाओ दीवाली।
#राम-नाम जयघोष हुआ है,गुंजित है ये धरा-गगन-
आज पूर्ण सौगंध हुई है ,जन्म- भूमि मंदिर वाली।

 

देख राम का रूप सलोना ,भीगा मेरा अंतर्मन।
बरबस छलक पड़ीं ये अँखियाँ,स्पंदित अब तक है तन।
अधरों पर मुस्कान देख मैं,पलक झपकना भूल गई।
पावन चरण निहारे जबसे,सब लगता पावन-पावन।

सवैया
लखि राम लला छवि मोहक सी मन भक्ति हिलोर अपार हुई।
धनु हाथ लिए अभिराम छटा मनभावन प्राण अधार हुई।
जनमानस दीप जलाय रहे ,जय राम लला जयकार हुई।
बरसों अभिलाष रही मन जो अब पूर्ण वही करतार हुई।

दोहा-
राम भक्ति हैं ,शक्ति हैं,रामहि परमानन्द।
राम नाम मन ले बसा, छूटेंगे भव फन्द।।

स्थिति जब प्रतिकूल हो ,धीरज छूटा जाय।
राम नाम अवलम्ब तब,होता सदा सहाय।।

आराधना सिंह’अनु’