जनक छंद
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तन, मन, धन, इज़्ज़त, भवन,
ये मेरे किस काम का,
सब मेरे प्रभु राम का।
कैकेयी के पूर्ण अब,
होंगे सारे जाप भी,
कट जाएँगे पाप भी।
कौशल्या के दो नयन,
रस्ता देखें राम का,
समय निकट परिणाम का।
सिया-लखन को साथ ले,
लौट रहे श्रीराम हैं,
ले हाथों में हाथ ले।
पल-पल, रह-रह, बिन थके,
बाट जोहती राम की,
प्रजा अयोध्या धाम की।
रामलला के वास्ते,
आस बढ़ी है आस की,
प्यास बुझी कब प्यास की।
दिन बीता, दीपक जले,
राम बताओ कब तलक,
हृदय प्रतीक्षा यह पले।
धीरे-धीरे बीतने,
घड़ियाँ लगीं सवेर की,
आने में क्यों देर की।
खड़ी रहीं कठिनाइयाँ,
जीवन में अवरोध था,
जब तक मन में क्रोध था।
सारा जीवन जानकी,
कब बैठी आराम से,
मिल पाई कब राम से।
व्यर्थ रही सब योजना,
पूर्ण हुआ कब काम है,
जीवन अर्द्ध विराम है।
अवधपुरी में राम बिन,
व्यर्थ सभी वरदान थे,
हम भी निःसंतान थे।
अवध बिहारी के बिना,
उत्तर कब खुशहाल थे,
चारों तरफ सवाल थे।
भरत अकेले रह गये,
मन जंगल में छोड़कर,
सब कुछ तन और सह गये।
गुमसुम पंछी जब कभी,
अपना मुँह थे खोलते,
राम-राम ही बोलते।
लिये खड़ाऊँ हाथ में,
भरत अकेले कब चले,
सदा राम थे साथ में।
दृश्य मिले खुशहाल से,
दशरथ नन्दन राम जी,
जब निकले तिरपाल से।
और समय फिर सो गया,
अवधपुरी से बात कर,
सूरज निकला रात भर।
अच्छे से अच्छा करो,
पहले दो परिणाम तुम,
फिर कोई इच्छा करो।
सूरज की किरणें नईं,
आज उजाला बाँटतीं,
अँधियारे को छाँटतीं।
-चेतन आनंद