सीता हरण

सीता हरण

बना भेष,भिक्षुक का देखो, दानवराज है आया।
सीता मैया को हरणे , रावण ने स्वांग रचाया।
मन में छल,मुख पर शीलता लिए, पहुंचा सिया के द्वार।
भिक्षां देहि ,के करूण स्वर से ,करने लगा पुकार।
द्वार पर आयी मैया लेकर अन्न,दान में देने।
बिनती की भिक्षुक से, आकर भिक्षा यही पर लेले।
क्रोध दिखाने लगा ऋषि पाखंडी ,कहा मैं, ना यहाँ आऊंगा।
धर्म भ्र्ष्ट हो जाएगा ,जो गृहस्थ के घर आऊंगा।
तुम बाहर आओ और दो भिक्षा, वर्ना रिक्त चला जाऊंगा।
माता जानकी सोच में पड़ गई, मैं क्या अब करूँ।
देवर लक्षमण ने जो खींची थी लक्ष्मणरेखा ,क्या उसे पार करूँ।
ना समझी छल को रावण के, पार की लक्ष्मण रेखा।
इसी अवसर की प्रतीक्षा में था रावण, सिया का दुष्ट नें हरण किया।

नंदिनी लहेजा
रायपुर(छत्तीसगढ़)
स्वरचित मौलिक अप्रकाशित