सवैया रामायण के चार छंद
राग बिराग से दूर सदा मुनि कानन वास करैं सुख मानी ।
ध्यान लगाय के योग को साधत राक्षस देंय महा दुख आनी ।।
क्रोध करहिं नहिं ज्ञानी मुनि कछु कालहिं कालहिं है मुख जानी ।
गाधि तनय मन कीन्ह बिचार हैं आज चले हरि सम्मुख ठानी ।।
मुनि आवत है सुनि बिप्रन लै संग भूपति मान बढावत है ।
मम धामहि धन्य है कीन्ह प्रभु कहि सादर माथ नवावत है ।।
मम पूरण यज्ञ न होत कभी रिषि आपन बात बतावत है ।
हम आयन मांगन रामहिं है सुत भूपति लाल कहावत है ।।
अवधेश सुने रिषि बातन का हिय कांपि गये मुख सूखत पानी ।
हम पायन है सुत चौथपना नहि बिप्र कहेव कछु सोचत बानी ।।
तुम मांगहु देहंव प्रान अभी पर रामहिं देत न सोहत ज्ञानी ।
सुनि भूपति प्रेम भरी बतिया तव आज बशिष्ठ निहोरत सानी ।।
गुरु ज्ञानहिं आज संदेह मिटे सुत सौंपि दिये रिषि के कर लाकर ।
यह प्रान समान है नाथ हमें अब मात पिता तुमहीं बतलाकर ।।
सुत भूपति के रिषि पाय सराहत देत अशीषहिं ज्ञान सिखाकर ।
भय हारन संग चले रिषि के पितु मातहिं सादर शीश नवाकर ।।
अजय मिश्रा अभिज्ञ भिनगा श्रावस्ती उ०प्र०