जंगल जंगल भटक रहे हैं रघुकुल के दो राजकुंवर।
पूछ रहे हैं वन जीवों से जनक दुलारी गई किधर।
पैर खड़ाऊ से वंचित और मुकुट नहीं है मस्तक पर ।
वल्कल वस्त्रों में दमके ज्यों स्वर्ण लगा हो पुस्तक पर।
राम लखन दोनों के दोनों हमको तो रणधीर लगें।
एक हाथ में बाण लिए है एक हाथ है लस्तक पर।
जाने क्यूं नयनों से बहती पीड़ा फिर आंसू बनकर।
पूछ रहे हैं वन जीवों से जनक दुलारी गई किधर।
सूरज जैसा तेज दिखे है दोनों के मुखमंडल पर।
लंबी चौड़ी काया उनकी शंका कैसी भुजबल पर।
वनवासी कहते हैं खुद को पर हमको युवराज लगें।
मुनियों के सुत इतने सुंदर कब देखे हैं भूतल पर।
ढूंढ रहे हैं व्याकुलता से जाने क्या वो इधर उधर।
पूछ रहे हैं वन जीवों से जनक दुलारी गई किधर ।
एक वीर है उत्साही सा एक वीर है धीर धरे।
मुरझाए दोनों के मुख अरु नयनों में भी नीर भरे।
जिस भी पथ से जाते हैं सबसे उनका गुणगान सुना।
जो भी पीड़ित मिलता उसकी क्षण भर में ही पीर हरें।
लेकिन कोई पीड़ा उनको दुर्बल करती रह रह कर।
पूछ रहे हैं वन जीवों से जनक दुलारी गई किधर।
पुनीत पांचाल
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