रघुवर तुम आओगे कब तक
अब मुझे रुलाओगे कब तक
अंखियां दर्शन को तरस रहीं
ऐ अश्रु बहाएंगी कब तक
रघुवर तुम आओगे कब तक
मां शबरी तेरी राह निहारे
पलक पांवड़े बिछे हैं द्वारे
नयनों से अविरल झरना बहता
सिसक-सिसक कर दिल है कहता
रघुवर तुम आओगे कब तक
मैं राम दरश अभिलाषी हूं
तेरे दर्शन की प्यासी हूं
मैं ना मथुरा,ना काशी हूं
प्रभु मैं आपकी दासी हूं
रघुवर तुम आओगे कब तक
अब तो कुटिया में आ जाओ
दासी को दर्शन प्रभु दे जाओ
अपलक मैं राह निहार रही
राहों में पुष्प मैं बिछा रही
रघुवर तुम आओगे कब तक
चरणों में शूल ना चुभ जाएं
मैं पलक पांवड़े बिछा रही
मैं गुरु मतंग की शिष्या हूं
उनकी वाणी की परिक्षा हूं
रघुवर तुम आओगे कब तक
हे राम तुम दर्शन दे देना
भवसागर पार लगा देना
मेरी ये कठिन परीक्षा है
शबरी ने करी प्रतिक्षा है
रघुवर तुम आओगे कब तक
प्रभु शबरी की कुटी पधारे हैं
शबरी ने हाथ पसारे हैं
अब खुशी हुई माता शबरी
दर्शन पा दिल से आह भरी
प्रभु को फिर बेर खिलाया है
मां शबरी ने नेह लुटाया है
तृप्त हो गए श्री प्रभु राम
जब जूठे बेरों को खाया है
दर्शन दे कर फिर प्रभु राम ने
मां शबरी का उद्धार किया
एक गरीब भिलनी शबरी का
भवसागर से बेड़ा पार किया
विद्या शंकर अवस्थी पथिक कानपुर