”आदि-मध्य-अंत”

हृदयाकाश में विचरण करते तुम
खिलते कमल-सी सुबह हो प्रियवर ।
व्यतीत हुए भ्रम में समस्त निश-दिवस
आतुर हैं जानने हेतु, ईश हो या नर।।

काल-पग-चाप, सुन मन आलाप
थिरक-थिरक मेघ घन उतरे।
मरुस्थली बादामी धरा कण-कण
भीग गए मन के कतरे-कतरे।।

बेकल-बेबस फड़फड़ाते व्योम-खग
स्वप्न-नगरी के दुर्ग ध्वस्त।
तोड़ सीमा-बंधन ज्वलंत विचार
हर युग करते मार्ग प्रशस्त।।

बहते जलधारा से शब्द-शब्द
ज्ञान-बोध उभरे प्रकृति-पुस्तक ।
विलीन मैं-तुम के सकल अहम भंडार
‘हम’ तड़ित-विद्युत चमक-चमक ।।

कब ? क्यों ? कहाँ? कैसे ?किधर ?
निरुत्तर हुए प्रश्न-प्रश्न ।
अतीत-वर्तमान-भविष्य चक्र
मना रहे हैं जश्न-जश्न ।।

अनंत काल से शक्ति प्रतिपालक
लिखते लेखा प्रेम-ग्रंथ-संत ।
करते भ्रमण धरा-आकाश-पाताल
तुम ही हो आदि-मध्य-अंत।।

रीता गुगलानी
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