जानकी सोचती वाटिका में खड़ी।
नाथ तुमको पता क्या कहां मैं खड़ी?
ढूंढते ढूंढते थक न जाना प्रभो।
राह तकते नयन रात दिन, हर घड़ी।।
भूख लगती नहीं, प्यास बुझती नहीं।
आज़ अंतस लगे फांस जैसे गड़ी।।
साथ रघुनाथ के शूल भी पुष्प हैं।
काल लंका बनी है रत्न से जड़ी।।
खेल विधना रचाई फंसी मीन सी।
कर रही थी प्रतीक्षा खड़ी झोपड़ी।।
द्वार रावण खड़ा भेष मुनि का धरा।
मांगता दान वो श्राप की ले छड़ी।।
ढोंग समझा नहीं पार रेखा हुई।
दंड मुझको मिला भूल थी जो बड़ी।।
दूर रघुनाथ से प्राण व्याकुल हुए।
वेदना बन बहे आंसुओं की झड़ी।।
प्रियंका झा
सीतामढ़ी, बिहार