दुर्मिल सवैया

दुर्मिल सवैया

सिय पूज रही गिरिजा मन से,वर आज मिले रघुनंदन का।
लख के छवि शीतल नैन हुए,उर लेप लगा जस चंदन का।
प्रण घोर किया पितु ने जननी,फिर कौन सुने स्वर क्रंदन का।
बस आस रही तुम से अब तो,शुभ आज मिले फल वंदन का।

सुन्दरी सवैया

थक बैठ गये धनु छूकर के,तिल भी न हटा महि से नृप पायें।
जननी सिय सोच रहीं मन में,अब शंभु गजानन पार लगायें।
पछताय विदेह कहा सबसे, अब वीर नहीं महि में कहँ जायें।
सिय सोच लखा रघुवीर तभी,गुरु शीश नवाय पिनाक उठायें।

पुष्पाशर्मा’कुसुम’