शबरी
भील कुमारी ,नव यौवना, श्रमना
मतंग ऋषि से मिले ज्ञान को
सहेजा तुमने अपने मन में
अपने चक्षु द्वय बिछा आंगन में
सुकुमार धनुर्धारी अयोध्यापति श्रीराम
अपनी मृगनयनी ढूंढते पहुंचे तुम्हारे धाम
एक – एक बेर तुम तोड़ती रही उम्र भर
जिह्वा से रसवादन कर तृप्त हो
पुलकित मन भरती रही दामन
अश्रुपूरित नैनों से प्रतीक्षा हुई परिपूर्ण
बेर खाए रामलला ने स्वयं हुए अर्पण
भक्ति अटल थी शबरी की
राम चले आए सिया लक्ष्मण संग
जूठे बेर खाए
नवधा भक्ति की पूंजी को तुमने पा लिया
मीरा को कृष्ण मिले शबरी को मिले राम।।
विनीता श्री
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