हे राम ये पूजा बहुत हुई,
कानों को सुना टंकार ज़रा।
तू तान प्रत्यंचा धनुष चढा,
रावण है बढा, ललकार ज़रा।
दुनिया सारी सोती जो रही,
सीता अब तक रोती जो रही।
शस्त्रों से सुसज्जित कदम बढ़ा,
जगे दुनिया सुन झंकार ज़रा।
हर पाँव क्यूँ ठिठका लगता है,
मानव क्यूँ ईश ही तकता है।
नहीं डर दानव मन आज रहा,
चल दे तो बता संहार ज़रा।
नहीं रस्ता कोई सूझ रहा,
उलझन है क्या नहीं बूझ रहा।
तू देख ये डगमग नैया है,
चल पार तू कर मझधार ज़रा।
दुनिया भी तुम्हे है भूल गयी,
मानो है नशे में झूल गयी।
कहाँ तू वनवासी बन भटके,
कुंडल ये कवच तू धार ज़रा।
किस काम का ये पत्थर बोलो,
तुम आज मेरे प्रियवर बोलो।
लहरों में पथिक सब भूल गये,
बन आज तो तू पतवार ज़रा।
बचे रहना क्या चतुराई है,
क्या नहीं ये धर्म लड़ाई है।
चन्दन तो भाल है बहुत मला,
ले रक्त तू कर श्रृंगार ज़रा।
कवियों ने कहा हर शब्द मगर,
मानव तो रहा निःशब्द मगर।
चुप्पी तो रही कायरता ही,
आँखों में दिखा अंगार ज़रा।
रही मूक बधिर जो दुनिया है,
अँखियन बे-नीर जो दुनिया है।
दानव देखो कण कण है बसा,
चल जला दे ये संसार ज़रा।
कीर्तन भी भजन भी बहुत हुआ,
झूठा ये यतन भी बहुत हुआ।
तू धीर भी तू विह्वल बन जा,
भर आज तू भी हुंकार ज़रा।
©रजनीश “स्वछन्द”